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आईएएस अधिकारी रमेश घोलप – मां ने चूड़ियां बेचकर बनाया आईएएस

रमेश घोलप आज भारतीय प्रशासनिक सेवा का एक जाना-माना चेहरा ,तुरंत जगह पर फैसला करके अब बन रहे हैं गरीबों के मसीहा

श्याम लाल शर्मा@chauthaakshar.com

ये हैं कोडरमा के जिला अधिकारी रमेश घोलप, इन्होंने वह कुछ कर दिखाया जो लाखों युवाओं के लिए एक मजबूत प्रेरणा बन सकती है जो देश और समाज की सेवा में कुछ कर दिखाना चाहते हैं कहते हैं कि लक्ष्य के प्रति जब जुनून के साथ हम आगे बढ़ते हैं तब प्रकृति भी हमारा साथ देने लगती है जिंदगी हमें चुनौती देती हैं, यह साबित करने के लिए कि क्या हममें यह साहस है कि हम लक्ष्य की ओर जाने वाले काँटों भरे कंकरीले रास्ते में अकेले चल सकें जहां हमारी मंजिल हमारा इंतजार कर रही है राष्ट्रकवि दिनकर की एक प्रसिद्ध पंक्ति है ‘मानव जब जोऱ लगाता है पत्थर पानी बन जाता है।’ कहीं ना कहीं इस पंक्ति को चरितार्थ कर दिखाया है महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव के रहने वाले अपनी मां के साथ इस चूड़ी बेचने वाले बालक ने । 10 साल की उम्र तक मां के साथ चूड़ी बेचने वाले इस बच्चे ने वाकई कमाल कर दिखाया। आज इस बालक की पहचान देश के एक शीर्ष आईएएस अधिकारी के रूप में है लेकिन इनके यहाँ तक पहुँचने का सफर संघर्षों से भरा है।

माँ-बेटे पूरे दिन चूड़ियाँ बेचते, जो कमाई होती उसे पिता शराब में उड़ा देते, दो जून की रोटी के लिए ललायित इस बालक ने अपना संघर्ष जारी रखा। महाराष्ट्र के सोलापुर जिला के वारसी तहसील स्थित एक छोटे से गांव महागांव में जन्मे रमेश घोलप आज भारतीय प्रशासनिक सेवा का एक जाना-माना चेहरा हैं। रमेश का बचपन अभावों और संघर्षों में बीता। दो जून की रोटी के लिए माँ-बेटे दिनभर चूड़ी बेचते लेकिन इससे जो पैसे इकट्ठे होते उससे इनके पिता शराब पी जाते। पिता की एक छोटी सी साइकिल रिपेयर की दूकान थी, मुश्किल से एक समय का खाना मिल पाता था। न खाने के लिए खाना, न रहने के लिए घर और न पढ़ने के लिए पैसे, इससे अधिक संघर्ष की और क्या दास्तान हो सकती?
रमेश अपनी माँ के साथ अपनी मौसी के इंदिरा आवास में ही रहते थे। संघर्ष का यह सिलसिला यूँ ही चलता रहा। मैट्रिक परीक्षा से एक माह पूर्व उनके पिता का निधन हो गया। इस सदमे ने रमेश को पूरी तरह झकझोर कर रख दिया, लेकिन हार ना मानते हुए इन हालातों में भी उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा दी और 88.50ः अंक हासिल किया। माँ ने भी बेटे की पढ़ाई को जारी रखने के लिए सरकारी ऋण योजना के तहत गाय खरीदने के उद्देश से 18 हजार रुपये ऋण लिया।
माँ से कुछ पैसे लेकर रमेश आईएएस बनने के सपने संजोए पुणे पहुंचे। यहाँ उन्होंने कड़ी मेहनत शुरू की। दिन-भर काम करते, उससे पैसे जुटाते और फिर रात-भर पढ़ाई करते। पैसे जुटाने के लिए वो दीवारों पर नेताओं की घोषणाओं, दुकानों का प्रचार, शादी की पेंटिंग इत्यादि किया करते। पहले प्रयास में उन्हें बिफलता हाथ लगी, पर वे डटे रहे। साल 2011 में पुनः यूपीएससी की परीक्षा दी और 287वां स्थान प्राप्त किये। इतना ही नहीं उन्होंने राज्य सर्विस की परीक्षा में पहला स्थान प्राप्त किया। उन्होंने प्रतिज्ञा की थी वो गांव तभी जायेंगे जब उन्हें अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफलता मिलेगी।

4 मई 2012 को अफसर बनकर पहली बार जब उन्होंने उन्ही गलियों में कदम रखा जहाँ कभी चूड़ियाँ बेचा करते थे, गांववासियों ने उनका जोरदार स्वागत किया। उन्होंने सफलतापूर्वक अपना प्रशिक्षण एसडीओ बेरमो के रूप में प्राप्त किया। हाल ही में उनकी नियुक्ति झारखण्ड के ऊर्जा मंत्रालय में संयुक्त सचिव के रूप में हुई है। रमेश अपने बुरे वक्तों को याद करते हुए बताते हैं कि जब कभी भी आज वो किसी निःसहाय की मदद करते तो उन्हें अपनी माँ के उस स्थिति की याद आती जब वो अपने पेंशन के लिए अधिकारीयों के दरवाजे पर गिडगिडाती रहती। अपने बुरे वक्तों को कभी ना भूलते हुए रमेश हमेशा जरूरतमंदों की सेवा में तत्पर रहते। इतना ही नहीं रमेश अबतक 300 से ज्यादा सेमीनार कर युवाओं को प्रशासनिक परीक्षाओं में सफल होने के टिप्स भी दे चुके हैं।
अपनी मां का जिक्र करते हुए घोलप कहते हैं, आज मुझे अधिकारी बने हुए 10 साल हो गए हैं, बावजूद इसके अभी भी मेरी मां गांव में चूड़ी बेचने का काम करती है। वो कहती हैं, जिस व्यवसाय ने हमें इतना कुछ दिया, उसे कैसे छोड़ दूं। राज्य में घोलप अनाथ बच्चों का अभिभावक बन रहे हैं। उनकी पढ़ाई की व्यवस्था और पूरे जीवन की चिंता करते हुए उनके उज्जवल भविष्य के लिए भी व्यवस्था करते हैं।

कुछ ही दिनों पहले कोडरमा प्रखंड के छोटकी बागी, वार्ड नंबर-1 अंतर्गत एक निर्धन परिवार के घर मातम छा गया था। मां की मौत के बाद 5 बच्चे अनाथ हो गए। इस घटना की जानकारी जैसे ही उपायुक्त रमेश घोलप को मिली, उन्होंने तुंरत इसके लिए पहल की और इन अनाथ बच्चों के अभिवाहक बने। उन्होंने इन बच्चों को कस्तूरबा एवं समर्थ विद्यालय में स्वयं जाकर एडमिशन कराया और इनके लिए सरकारी योजनाओं का लाभ सुनिश्चित कराया, ताकि भविष्य में इन्हें कोई दिक्कत न हो।उन्होंने कहा कि ऐसे गरीब और बेसहारा बच्चों के उत्थान के लिए कई सरकारी योजनाएं चल रही हैं। सिर्फ निगरानी करनी होती है। जरूरत पड़ने पर वह खुद भी उनका भार उठाते रहे हैं। उनका कहना है कि वह अक्सर अपने सरकारी निवास पर जनता दरबार लगाते हैं। गरीब, बेसहारा और अनाथ बच्चों के लिए एक ही जगह से सारी समस्याओं के निदान का प्रयास करते हैं। यही नहीं, लोगों के लिए वृद्धावस्था और विधवा पेंशन, आधार कार्ड बनवाना व अन्य जरूरी सेवाएं भी तुरंत मुहैया कराई जाती हैं। रमेश की कहानी उन लाखों युवाओं के लिए एक मजबूत प्रेरणा बन सकती है जो सिविल सर्विसेज में भर्ती होकर देश और समाज की सेवा करना चाहते हैं।
अक्सर देखा जाता है कि हम लोग अपने दुःखों के लिए हमेशा आंसू बहाते रहते हैं. अपने अभावों को ही अपना नसीब मानकर पूरा जीवन गुजार देते हैं, लेकिन कुछ रमेश जी जैसे लोग ऐसे भी हैं जो हालातों को अपना नसीब नहीं बनाते बल्कि अपना नसीब खुद लिखते हैं.

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