दृष्टिकोणपहला पन्नाराष्ट्रीय
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को चुनाव जीतना तो आता है लेकिन शासन चलाना नहीं-योगेंद्र यादव
स्वास्थ्य-सुविधाओं का ढांचा चरमरा उठा है. मरीजों की बढ़ती तादाद के बीच सरकारी और निजी अस्पतालों में ना तो वेंटिलेटर बचे हैं, ना बेड और ना ही आक्सीजन. बस एक चीज बेतहाशा बढ़ी है और वह है श्मशानों और कब्रिस्तानों में शवों की तादाद. जीवन-रक्षक दवाइयों की कालाबाजारी हो रही है. टीकाकरण की तादाद घट गई है. हर कोई चिंतित है, किसी तरह अपनी घबराहट और बेचैनी पर काबू किये हुए है. हरेक को आश्वासन के लिए किसी कंधे की तलाश है.

योगेंद्र यादव
नई दिल्ली
कोविड-19 की दूसरी लहर के बाद राष्ट्र के नाम प्रधानमंत्री के प्रथम संबोधन से एक बात साफ हो गई हैः देश अभूतपूर्व स्वास्थ्य संकट से जूझ रहा है लेकिन मोदी सरकार अपनी जिम्मेवारियों से कन्नी काटने की जुगत लगा रही है. प्रधानमंत्री का सन्यासी का डिजाइनर बना सत्ता-मोह के त्याग की किसी इच्छा का संकेत नहीं बल्कि जिम्मेदारियों से भागने की प्रवृत्ति पर पर्दा डालने की कोशिश है. उनके पास देने को कुछ भी नहीं है. वे इस बात को जानते थे और यह उनके संबोधन में जाहिर भी हुआ.
राष्ट्र के नाम संबोधन बेवक्त नहीं था. दरअसल, देश तो इंतजार में था कि कब प्रधानमंत्री कुछ कहेंगे. कोविड पाजिटिव मामले हैरतअंगेज तेजी से बढ़ रहे हैं. मौतों की संख्या आधिकारिक आंकड़ों से कहीं ज्यादा है. स्वास्थ्य-सुविधाओं का ढांचा चरमरा उठा है. मरीजों की बढ़ती तादाद के बीच सरकारी और निजी अस्पतालों में ना तो वेंटिलेटर बचे हैं, ना बेड और ना ही आक्सीजन. बस एक चीज बेतहाशा बढ़ी है और वह है श्मशानों और कब्रिस्तानों में शवों की तादाद. जीवन-रक्षक दवाइयों की कालाबाजारी हो रही है. टीकाकरण की तादाद घट गई है. हर कोई चिंतित है, किसी तरह अपनी घबराहट और बेचैनी पर काबू किये हुए है. हरेक को आश्वासन के लिए किसी कंधे की तलाश है. वह संकट जो देश पर आन पड़ा है, उससे निपटने की तैयारियों के बाबत हरेक के मन में सवाल कौंध रहे हैं. हर कोई सरकार की योजना के बारे में जानना चाहता है.
प्रधानमंत्री का भाषण बहुत छोटा था. लोगों की जो जरूरतें हैं अभी, जो काम लोग होते देखना चाहते हैं और जिसे लोगों को जानने का हक है, इन सारी ही बातों में भाषण बहुत छोटा था. लोग जवाब मांग रहे थे, प्रधानमंत्री के पास जवाब नहीं था. लोग भरोसे के लायक आश्वासन चाह रहे थे लेकिन बदले में मिले उन्हें खोखले लफ्ज. लोग अपनी चुनी हुई सरकार की आपराधिक उपेक्षा को देख क्रोध में थे लेकिन प्रधानमंत्री ने लोगों के दुख को कमतर आंकते हुए उसे अपने निजी दुर्भाग्य का रूप दे डाला.
ऐसा ना लगा कि ये लोकतांत्रिक रीति से चुने हुए एक नेता का भाषण है जो अपने भाग्य-विधाताओं के सामने अपनी करनी-धरनी का लेखा-जोखा पेश कर रहा हो. लगा खुद को सबका भाग्य-विधाता मानने वाला कोई शासक अपने प्रजा जन से कह रहा हो कि चिंता की कोई बात नहीं है, सब भला-चंगा है और लोगों की चाहिए कि वे अपने शासक और उसके शासन पर भरोसा बनाये रखें.
कोई नाटकीय घोषणा नहीं थी, ऐसा कुछ ना था भाषण में जो लोगों को बेचैन करे, उन्हें घबराहट में डाले. नाटकीयता के एकदम करीब बैठती अगर कोई बात प्रधानमंत्री ने की तो बस यही कि इशारों-इशारों में जता दिया कि दूसरा राष्ट्रव्यापी लाकडाऊन नहीं होने जा रहा. शायद, उनके भाषण की सबसे राहत देने वाली बात यही थी. लेकिन, इस किस्म का इनाम देने के लिए आपको देश को रात 8 बजकर 45 मिनट तक सांसत में डाले रखने की कोई जरूरत ना थी.
पिछले साल क्या काम हुए, इसका कोई जिक्र ना था. महामारी की दूसरी लहर की चपेट में हम कैसे आये, इस बात पर प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में एक शब्द नहीं कहा. हालांकि, पहले उन्होंने दावा किया था कि कोरोना-मैनेजमेंट के मामले में भारत पूरी दुनिया के लिए एक माडल है. उन्होंने कोविड की दूसरी लहर को कुछ यों समझाया मानो वह भूकंप आ चुकने के बाद का हल्का झटका हो, कोई प्राकृतिक आपदा हो जिस पर हमारा कोई जोर नहीं. ये बताना भी जरूरी नहीं समझा कि कोविड की दूसरी लहर की आशंका के मद्देनजर उनकी सरकार ने बीते 13 महीनों में क्या-क्या किया है.
#WATCH | Sunil Saggar, CEO, Shanti Mukand Hospital, Delhi breaks down as he speaks about Oxygen crisis at hospital. Says "…We're hardly left with any oxygen. We've requested doctors to discharge patients, whoever can be discharged…It (Oxygen) may last for 2 hrs or something." pic.twitter.com/U7IDvW4tMG
— ANI (@ANI) April 22, 2021
प्रधानमंत्री जब राष्ट्र के नाम संबोधन कर रहे थे तो देश की राजधानी के कुछ अग्रणी अस्पतालों के मेडिकल सुप्रिटेंडेंट चेतावनी के स्वर में कह रहे थे कि उनके पास अब महज चंद घंटों की आक्सीजन-सप्लाई रह गई है. प्रधानमंत्री ने बेशक ये आश्वासन दिया कि चिकित्सा कार्य में इस्तेमाल होने वाले आक्सीजन को उपलब्ध कराने की योजना बनायी जा रही है लेकिन यह बिल्कुल नहीं बताया कि ये योजना अब जाकर क्यों बनायी जा रही है. यही बात अस्पताली ढांचे और दवाइयों के बारे में कही जा सकती है. भाषण में हर मोर्चे पर यही कहा गया कि, ‘प्रयास किया जा रहा है ‘.
कोई भावी योजना हो, ऐसा भी बात नहीं. प्रधानमंत्री के पास बस दूसरों को बताने के लिए सुझाव भर थे कि राज्य सरकारों को कार्यकर्ताओं में आत्मविश्वास जगाना चाहिए ताकि वे अपने काम पर डटे रहें. मतलब, अगर अप्रवासी मजदूरों का दूसरी दफे पलायन हो रहा है तो इसकी जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है और यहां कोई ये मत सोचे कि मोदी सरकार ने खुद ही महामारी से निपटने के राज्यों के अधिकार को एक किनारे करते हुए केंद्रीय अधिनियम लागू किया है. प्रधानमंत्री ने स्वयंसेवी और सामाजिक संगठनों से कहा कि वे जरूरतमंदों की मदद करे. मतलब, राहत-कार्य सरकार की जिम्मेवारी नहीं है. वे चाहते हैं, मीडिया ये सुनिश्चित करे कि लोगों में घबराहट या अफवाह ना फैले. नौजवानों को उन्होंने सलाह दी कि समिति बनायें और महामारी के समय में जैसा अनुशासन होना चाहिए, उसे सुनिश्चित करें. वे बस यह बताना भूल गये कि नेताओं में ऐसा अनुशासन कैसे कायम हो जो इस संकट के वक्त भी चुनावी सभाएं कर रहे हैं.
प्रधानमंत्री को इतने पर संतोष ना हुआ तो उन्होंने महामारी से चल रही लड़ाई में बच्चों को भी शामिल कर लिया. मतलब, संक्षेप में ये किः उनकी सरकार को छोड़ हर कोई कोविड की दूसरी लहर से निपटने में जिम्मेवार है. मानो, मोदी सरकार के लिए कोई लक्ष्य नहीं, कोई रोडमैप नहीं, कोई बेंचमार्क और कोई काम नहीं.
झांसा देने की जो उनकी आदत है, इस बार के भाषण में वैसा भी कुछ नहीं था. लोगों से प्रधानमंत्री ने इस बार सिर्फ एक ठोस ब्यौरा साझा किया. उन्होंने दावा किया कि भारत ने बड़ी तेजी दिखायी है और वैक्सीन की 10 करोड़ खुराक यहां सबसे पहले दी गई है. यह दावा सही नहीं और गुमराह करने वाला है. डा. रिजो एम. जान का कहना है कि अमेरिका को इस आंकड़े तक पहुंचने में 82 दिन लगे जबकि भारत को 84 दिन. अब बात चाहे जो भी हो लेकिन टीकाकरण की कामयाबी संख्या में नहीं बल्कि जनसंख्या के अनुपात के हिसाब से आंकी जानी चाहिए. इस आधार पर देखें तो भारत कई देशों से पीछे है. यों, प्रधानमंत्री सच बोलने के मामले में जितनी किफायतशारी बरतते हैं, उसे देखते हुए इसे एक मामूली झूठ कहा जाएगा.
दरअसल, राष्ट्र के नाम प्रधानमंत्री का संबोधन एक प्रचार-कर्म था, राष्ट्रीय टेलीविजन चैनलों पर ऊंची टीआरपी देने वाला शो. मेरे मित्र राकेश शर्मा, जिन्होंने मोदी पर दशकों तक नज़र रखी है, इसके बारे में एक जुमला कहते हैं कि ‘प्राण जाए पर पीआर(प्रचार) ना जाए’.
टीवी शो के जरिए सुनिश्चित किया गया कि प्रधानमंत्री लोगों को नज़र आयें और उन्हें ये महसूस ना हो कि इस संकट की घड़ी में प्रधानमंत्री नदारद हैं. उनके ऊंचे मगर खोखले आश्वासन का मकसद था अपने समर्थकों को एक आधार देना ताकि वे अपने आंख मूंदे रहें, जो हो रहा है उसे ना देखें. भाषणबाजी का मकसद उस त्रासद तस्वीर से लोगों का ध्यान भटकाना था जो हर घड़ी-क्षण अस्पतालों और श्मशानों से निकलकर मीडिया के महासागर में तैर रही है. लोगों में ये भावना घर करते जा रही है कि शासक जनता की दुर्दशा से मुंह मोड़े है, उसे सिर्फ अपनी चुनावी जीत की फिक्र है और ये सारा कर्मकांड लोगों में पसरती जा रही इस एक भावना को ढंकने के लिए किया गया.
दरबारी मीडिया की मदद से ये चाल लंबे समय तक कारगर रही. लेकिन एक नियम है ना कि किसी कोशिश से अधिकतम लाभ बटोर लेने के बाद वो कोशिश समान रूप से कारगर नहीं रह जाती, मिलने वाला फायदा लगातार घटता जाता है, तो अब वही नियम काम करता दिख रहा है. ये कोई और बात है कि दूर-दराज के लद्दाख में चीन के हाथों अपनी जमीन गंवा दी गई और इसके बावजूद लोगों को समझाये रखा गया कि दरअसल मुंह की तो भारत के हाथों चीन को खानी पड़ी है.
और, ये एकदम ही अलग बात है कि जो लोग रोगी के बेड के लिए अस्पतालों के चक्कर काट रहे हैं, कालाबाजारियों के हाथों बिक रही दवाइयां खरीदने पर मजबूर हैं और श्मसानों में जलती चिता देखने को मजबूर हैं, उन्हें समझा दिया जाये कि सरकार से जो कुछ संभव हो सका, उसने वो सबकुछ किया है. देर या सबेर, लोगों को बात समझ में आयेगी ही कि मोदी चुनाव जीतना तो जानते हैं लेकिन शासन चलाना नहीं.
(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. व्यक्त विचार निजी है)